Home देश-दुनिया शाखा से वैचारिक वटवृक्ष तक का सफर: विजयदशमी पर पांच स्वयंसेवकों के साथ की गई थी संघ की स्थापना, 100 साल बाद…

शाखा से वैचारिक वटवृक्ष तक का सफर: विजयदशमी पर पांच स्वयंसेवकों के साथ की गई थी संघ की स्थापना, 100 साल बाद…

आरएसएस का पथ संचलन (फाइल) - फोटो

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नईदिल्ली(ए)। नागपुर के मोहिते वाडा में 28 मई, 1926 की सुबह पहली शाखा लगी। तब खाकी वर्दी पहने 15-20 युवकों का समूह इसमें शामिल हुआ। ये युवक अनुशासित तरीके से ऐसे अभ्यास कर रहे थे, जो भारत की सत्याग्रह और विरोध की राजनीतिक संस्कृति के लिए अपरिचित थे। इस नवोदित प्रयोग के केंद्र में डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार थे, जो गांधीवादी आदर्शवाद और क्रांतिकारी राष्ट्रवाद दोनों से प्रभावित थे। लेकिन उनका मानना था कि भारत की असली समस्या हिंदुओं की फूट व कमजोरी में छिपी है।

आरएसएस की पहली शाखा एक कल्पना को ठोस आकार देने की कोशिश थी, जिस पर उस समय नागपुर के बाहर बहुत कम लोगों का ध्यान गया था। एक शताब्दी बाद, आरएसएस भारत में सबसे सशक्त ताकतों में एक बन गया है, जो अपनी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के माध्यम से देश में पूर्ण प्रभुत्व स्थापित कर रहा है। साधारण शुरुआत से लेकर, प्रतिबंधों और हाशिए पर धकेले जाने के दौर से होते हुए, सत्तारूढ़ व्यवस्था के वैचारिक केंद्र के रूप में वर्तमान भूमिका तक, संघ का सफर अपने लचीलेपन और अनुकूलनशीलता के लिए उल्लेखनीय रहा है। यह एक विचारबीज से वटवृक्ष बनने का अनूठा सफर है। ऐसा संगठन, जिसने अपने अस्तित्व और विस्तार के लिए लगातार खुद को नया रूप दिया। अपने इस मूलभूत विश्वास को कभी नहीं छोड़ा कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और होना ही चाहिए।

प्रतिबंध के बावजूद बढ़ता गया संघ
हेडगेवार का 1940 में निधन हो गया। हेडगेवार के बाद एमएस गोलवलकर (गुरुजी) संघ के प्रमुख बने। गोलवलकर ने संघ को राष्ट्रीय शक्ति में बदल दिया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में व्याख्याता गोलवलकर जब संघ प्रमुख बने, तब वह केवल 34 वर्ष के थे। गोलवलकर ने संघ को विचारधारा और संगठन प्रदान किया। उन्होंने खुद सत्याग्रह जैसी गांधीवादी अवधारणाओं को अपनाया, जबकि संघ को वैचारिक रूप से अलग रखा।

संघ का जमीनी स्तर पर विस्तार
गोलवलकर ने संघ का जमीनी स्तर पर विस्तार किया। उन्होंने अविवाहित, पूर्णकालिक मिशनरियों की प्रचारक प्रणाली व्यवस्थित की। यह प्रणाली संघ की रीढ़ बन गई। इसी प्रणाली ने अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी सरीखे नेताओं को जन्म दिया।

आजादी के बाद संघ पर संकट
आजादी के बाद 1948 में पूर्व स्वयंसेवक नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी। आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। हालांकि, गांधीजी की हत्या में संघ को प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं माना गया, लेकिन कलंक बहुत गहरा था। 1949 में सरकार ने प्रतिबंध हटाया, तो संघ ने लिखित संविधान अपनाया और सांविधानिक तरीकों और गैर-राजनीतिक भागीदारी के लिए प्रतिबद्ध हुआ। भारतीय जनसंघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय मजदूर संघ, विश्व हिंदू परिषद और भारतीय शिक्षण मंडल जैसे सहयोगी संगठनों का गठन हुआ। भारतीय जनसंघ बाद में भारतीय जनता पार्टी के रूप में सामने आया।

आपातकाल से राम मंदिर आंदोलन तक
1973 में मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बालासाहेब देवरस संघ प्रमुख बने। आपातकाल (1975-77) के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में संघ ने खुद को झोंक दिया। संघ पहली बार किसी राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा बना। हजारों स्वयंसेवकों को जेल में डाला गया। जयप्रकाश ने भी कहा कि अगर आरएसएस फासीवादी है, तो मैं भी फासीवादी हूं।

देवरस ने आंदोलन के बीज बोए
देवरस ने संघ का आधुनिकीकरण किया। उसकी इकाइयों को चुनावी क्षेत्रों से जोड़ा। विवाहित पुरुषों को संघ में पूर्णकालिक पद दिया। देवरस को हिंदू राष्ट्रवाद को नागरिक राष्ट्रवाद की भाषा में ढालने का श्रेय दिया जाता है। देवरस ने ही राम जन्मभूमि आंदोलन के बीज बाेए थे। उन्होंने विश्व हिंदू परिषद को जागृत किया।

पारदर्शिता को संस्थागत रूप 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया 1994 में संघ के प्रमुख बने। वह संघ के एकमात्र गैर ब्राह्मण प्रमुख रहे। उन्होंने खुले विचारों वाले नए चेहरे का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने पारदर्शिता को संस्थागत रूप दिया। उन्होंने कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, अशोक सिंघल, उमा भारती, केएन गोविंदाचार्य और मोहन भागवत जैसे नेताओं की एक पीढ़ी को मार्गदर्शन दिया। विभिन्न दलों के नेताओं के साथ उनके तालमेल ने वाजपेयी सरकार के लिए गठबंधन राजनीति की राह आसान की। संघ सत्ता प्रतिष्ठान के साथ संवाद में शामिल हुआ।

सत्ता बनाम विचारधारा की लड़ाई
वर्ष 2000 में केएस सुदर्शन ने कार्यभार संभाला। सुदर्शन ने वैश्वीकरण, विनिवेश और विदेशी पूंजी का विरोध किया और स्वदेशी पर अपना ध्यान केंद्रित किया। इससे उनका वाजपेयी सरकार के साथ टकराव होता रहा। यही दौर था, जब संघ विचारक गोविंदाचार्य ने वाजपेयी सरकार को मुखौटा कहा था। हेडगेवार का मानना था, भारत की असली समस्या हिंदुओं की फूट और कमजोरी है।

शाखा का निर्माण
हेडगेवार क्रांतिकारियों के लिए संचालित फिटनेस क्लब (अनुशीलन समिति) से जुड़े एक उत्साही कांग्रेस कार्यकर्ता थे। गांधीजी के असहयोग आंदोलन के दौरान उन्होंने गिरफ्तारी भी दी थी। लेकिन महात्मा गांधी की ओर से खिलाफत आंदोलन का समर्थन व कांग्रेस के हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर से वह इससे विमुख हो गए।

मोदी का उदय और भाजपा का प्रभुत्व
2009 में मोहन भागवत संघ प्रमुख बने। उनके कार्यकाल में नरेंद्र मोदी का उदय हुआ। देश की सत्ता पर भाजपा का पूर्ण प्रभुत्व हुआ। भागवत ने मनुस्मृति के जातिवादी अंशों को अस्वीकार किया। हिंदुओं से काशी-मथुरा छोड़कर हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग न ढूंढ़ने का आग्रह किया।

पुरुष-प्रधान संघ में महिलाओं की भागीदारी का आह्वान किया और जातिगत भेदभाव के विरुद्ध सामाजिक समरसता कार्यक्रम शुरू कराए। उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान का हिंदू राष्ट्र होना संघ का स्थिर मत है, लेकिन वह अन्य सभी विषयों पर अपने विचारों को संशोधित करने के लिए तैयार है।

संघ की शाखाओं का तेज विस्तार
भागवत के नेतृत्व में संघ देश की सत्ता के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में ही नहीं उभरा, बल्कि शाखाओं का भी तेजी से विस्तार हुआ। उनके कार्यकाल में शाखाओं की संख्या 40 हजार से बढ़कर 83 हजार से भी अधिक हो गई। इस दौरान संगठन के कई ऐतिहासिक लक्ष्य, जैसे कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाना और अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण पूरा हुआ। वह भी सड़क पर आंदोलन के बजाय सरकारी कार्रवाई और अदालत के फैसले के जरिये।

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